अच्छे थे वो दिन
जब रिश्तो की समझ ना थी,
ना मालूम था
ये टूटते भी हैं,
बनते बिगड़ते सिलसिलो में
रिश्ते छूटते भी हैं ..
ना मालूम था,
की दिल दुख़्ता भी है,
जब कोई अपना जाता है,
कहाँ जाता है,
ये कभी किसी ने बताया ही नही,
फिर कब आता हे लौट कर ,
ये समझाया भी नहीं..
हम तो समझते थे,
की यूँ ही रहेगा सब कुछ,
हस्ता मुस्कुराता,
ना कोई जाएगा कहीं,
ना कही हमको जाना होगा..
उंगलिया भी कम पड़ती थी,
दोस्तो के नाम गिन ने में,
एक एक नाम पर दो दो चेहरे,
नज़र आते थे ज़हन में..
कैसी भी हो दूरियाँ,
एक आवाज़ मे मिट जाती थी,
दोस्तो के खो जाने को,
छुपन छुपाई कहते थे..
अच्छे थे वो दिन,
जब रिश्तों की समझ ना थी..
No comments:
Post a Comment