Wednesday, 17 September 2014

मौत का स्वाद

चलती गाड़ी के साथ उड़े जा रहा था मेरा मन
सोचा ना था अगले मोड़ पर ज़िंदगी की आखरी झलक दिखेगी,
यूँही देखा गाड़ी की खिड़की से बाहर
एक पिंजरे मे कई मासूम ज़िंदगिया चहक रहीं थी,
अगले पलो से अंजान एक दूसरे से जाने क्या गुफ्तगू कर रहीं थी,
उनको नहीं था कुछ मालूम
लेकिन उनके पिंजरे ने मुझे बता दिया,
उनकी रगो मे बहता खून जल्द ही नालियों मे बहेगा
उनके परो को नौचकर उनका मास बिकेगा,
तब ही देखा दो आँखे मुझे एकटक देख रहीं थी,
कुछ कह रही थी या पूछ रही थी, मालूम नहीं
ज़िंदगी और मौत के बीच की जैसे झलक थी,
क्या करू कैसे करू
मौत देखी नहीं पर महसूस हो रही थी,
जान उसकी जाती
जाने घुटन मुझे क्यू हो रही थी,
थी वो मुर्गियाँ मगर साँस तो वो भी लेती हैं
उनके सीने मे भी दिल है
दर्द वो भी महसूस करती हैं,
सालों हुए उन आँखो में झाके
पर जैसे अभी की बात हो,
मौत आई उसे एक बार
रोज़ ग्लानि मुझे क्यों होती है,
इस कड़वी मौत का स्वाद कोई चटखारे ले उड़ाएगा,

उसकी मौत का स्वाद आज फिर किसी की महफ़िल सजाएगा |

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